पुरुष
संसार की सारी पौराणिक आधुनिक महान कृतियों की केंद्र स्त्रियां रही है सदैव।
स्त्रियों को देवी, माता का दर्जा मिला लेकिन पुरुष योद्धा बन कर रह गया, पुरुष के प्रेम को कायर बताया गया इतिहास मे. उसे हमेशा स्त्री के लिए लड़ना पड़ा. उसे ही धनुष तोड़ना पड़ा, उसे ही मछली की आंख पर निशाना लगाना पड़ा. उसे अपना प्रेम सिद्ध करना पड़ा, वो हमेशा विवश रहा स्त्रियों के आंसुओ के सामने.
रामायण की सीता का त्याग हम जान गए, लेकिन उस राम का त्याग न देख पाए जो एक स्त्री की बातों में आकर पुत्र को बनवास दिया तो पुत्र, पिता के वचन के लिए अपने सुख को छोड़ जंगल निकल गया. पुरुष के मना करने पर भी जब महिला बाहर निकली तो पुरुष ने उसको छोड़ा नहीं उसके लिए लड़ा और लंका पर विजय प्राप्त करके उसे लाया. उसने पुत्र धर्म, पति धर्म, राज्य धर्म सबका पालन किया. उसने अगर नहीं किया कुछ तो स्वधर्म का पालन. पुरुष सबके लिए लड़ा,सिवाय खुद को छोड़ कर
द्रौपदी को सबने सराहा उसके क्रोध को, प्रतीक्षा को, उसके प्रतिशोध को। किंतु वंचित रह गया कर्ण, भीष्म और अर्जुन जैसे नायकों के वास्तविक युद्ध से, जिसे उन्होंने रणभूमि में नहीं मनभूमि में लड़ा, और अपनी पसंदीदा स्त्री के लिए अपने घर के लोगों का संहार किया. इतिहास मे बड़े बड़े युद्ध स्त्रियों के लिए लड़े गए, पुरुष योद्धा कहलाया और स्त्री देवी.
महिलाओं के लिए हमेशा पुरुषों ने लडाई लड़ी,लेकिन वो प्रेम फिर भी न पा सका. वो ठगा गया स्त्री मन से. वो रोना चाहता था मगर उसे कहा गया कि मर्द रो नहीं सकता. वो अपने आंसुओ को छिपाता रहा और इतिहास ने उसे पत्थर बता दिया.
नहीं पहुँचा कोई पुरुषों के कोमल ह्रदय तक, इतिहास भी युद्धों में उलझा रहा। महान बताया योद्धाओं को और प्रेमियों को कायर।
पुरुषों ने त्याग किए अपनों के लिए, संघर्ष किया, समाज में लज्जित हुए, स्वाभिमान से समझौता किया। अपने लक्ष्यों, सपनो को जला कर अपनों के लिए उस आग पर रोटियां सेंकी। खड़े ही रहे सदा धूप में, ठंड में, बरसात में।
लेकिन पुरुषों के हिस्से हमेशा युद्ध आया न की प्रेम. पुरुष हर छल से जीता,लेकिन हमेशा हार गया स्त्रियों के छलावे से.
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