मैं और मेरे जीवन में स्त्री विमर्श

               सृष्टि की रचना में बहुत सारी बातों का ध्यान रखा गया होगा.प्रकृति हमेशा चेक एंड बैलेंस पर चलती है क्योंकि उसने पुरुष और स्त्री दोनों को पृथ्वी पर भेजा है,यानी दोनों कंही न कंही एक दूसरे के लिए बराबर जरूरी है.ये माँ-बाप,दादा-दादी,नाना-नानी,पति-पत्नि बहन-बहनोई,भाई-भाभी दोस्त वगैरह वगैरह ये रिश्ते कंही न कंही इंसान को मानसिक सुकून,इमोशन के स्तर पर ताकत देते होंगे, पुरुष और स्त्री दोनों एक दूसरे के पूरक होंगे लेकिन मैं शायद इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैंने जीवन के हर फेज को नहीं जिया है, मुझे इसका पर्याप्त अनुभव नहीं है हालांकि मैं उम्र से बड़ा हमेशा से बना रहा इसलिए अनुभव हुआ मुझे कुछ कुछ. मैं अपनी उम्र से आगे चलता रहा और ये मेरा शौक नहीं था ये मेरी मजबूरी थी. 
क्योंकि जीवन में जब आप किसी रिश्ते यानी (माँ) को खो देते है न तब आप बिखर जाते है कहते है न 
   "भाई मरे बल घटे, बाप मरे छत जाए. 
   जिस दिन मरेगी माँ जग सूना कर जाए" . यानी संसार आपके लिए आंखे मूँद लेगा, अगर आपको कोई गले भी लगाएगा अपने हिसाब से और अपनी सहूलियत से,लेकिन वो जब दगा देगा तो आप टूटने पर रो कर किस के पास जाएंगे वो जगह नहीं होगी आपके पास. 
माँ का जाना वो भी ऐसी माँ जिनके इर्द गिर्द ही हमारा सब कुछ घूमता हो, यानी त्योहार से लेकर जन्मदिन तक के कार्यक्रम की पूरी कमांड हो पेरेंट्स मीटिंग से ले कर मेरे U-16 क्रिकेट सिलेक्शन मे साथ हो और तो और अगर सामने वाला अगर धमकी दे तो सबसे आगे खड़ी हो यानी पिता जी का रोल भी खुद ही.उसके आँखों के इशारे से हमे काम करना होता था यानी आपका पूरा कंट्रोल उसके हाथों में हो.माँ सबके जीवन का अहम हिस्सा होती होगी शायद,मैं फिर शायद कह रहा हूं क्योंकि मैंने उसके ना रहने पर हर कदम उसकी कमी महसूस की है रहने पर क्या होता होगा इसका अंदाजा नहीं है मुझे.
पुरुष के जीवन में स्त्री और शायद स्त्री के जीवन में पुरुष का महत्व होता होगा.ये मैं तब कह रहा हूं जब मैं आज भी ये महसूस कर रहा हू मेरे जीवन की प्रथम स्त्री यानी मेरी माँ मेरे साथ नहीं है तब,मैं एक उसके न रहने से आज किस कदर सामाजिक स्तर पर,मानसिक स्तर पर कमजोर हू इसका अंदाजा शायद मुझे ही है या शायद मेरे नाना-नानी को था पर अब वो भी इस दुनिया में नहीं है,मेरे जीवन मे दादी,नानी,माँ,बहन या कोई महिला मित्र जो मुझे कह सके मैं हू न वाले प्यार का अभाव रहा यानी स्त्री विमर्श का अभाव रहा जिसका खामियाजा मैं आज तक भुगत रहा हू.
   मेरे जीवन में आज जो भी डेवलपमेंट है उसकी जिम्मेदार मेरी माँ रही और साथ ये भी बता दूँ मेरे जीवन में आज जो कमियां है उसकी जिम्मेदार भी माँ ही है,क्योंकि उसके कारण मैं दया का पात्र बन जाता हूँ, इतना कमजोर हू की कोई मुझे उस तरह का प्यार देता है मैं तुरंत से लपक कर उसकी तरफ चला जाता हूँ यानी मैं मजबूत नहीं हूं और लोग इसका फायदा उठा लेते है और मैं औंधे मुँह गिर जाता हूँ और मैं अपनी इस कमजोरी को स्वीकारता हूं. मुझे बहुत सारी शिकायतें है माँ से और मैं उससे तो शिकायत कर ही सकता हूँ. 
   उसने भी मुझे ऐसे समय में छोड़ा जब मैं उसके काफी करीब था,मैं उसके होने का महत्व समझने लगा था,मैं उसके पास बैठने लगा था,मैं उसके फोन का इंतजार करने लगा था,मैं घर जा कर उससे अपनी सारी बात बताना चाहता था,मुझे आदत थी की वो फोन करके मेरा हाल चाल लेगी मतलब मुझे उसकी बातों को सुनने का और फिर उसे करने का समय आया था यानी मेरी किसी बात पर उसको गौरव महसूस होता, मुझे वो चमकती आँखों के साथ गले लगाती लेकिन न उसको ऐसी चीज़ से क्या मतलब था. तब ही अचानक वो मुझसे रूठ गयी मैंने बहुत उसको मनाया उसकी काफी सेवा की लेकिन वो नहीं मानी और मुझे अकेला छोड़ दिया. यानी एक स्त्री और पहली स्त्री ने मुझे यहां पर छोड़ दिया 
    ये उस समय की बात है जब मैं 15-16 साल का था, ये वो समय होता है जब आपको माँ बाप की बात बहुत खराब लगती है,ये उम्र का वो पड़ाव होता है की किसी की कोई बात अगर लग जाए तो घर से भागने की सोचते है,माँ बाप के सामने खुद को सिद्ध करना चाहते है. 
    मुझे ठीक ठीक याद है मैं उस समय भागलपुर में रहता था,शाम का समय था मैं 12th मे था मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा दी थी मेरा कंप्युटर इंजीनियरिंग के लिए नाम आया था और मुझे counseling के लिए जाना था, मैं उसकी तैयारी कर रहा था तभी अचानक घर से कॉल आया की माँ बीमार है भागलपुर ले कर आ रहे है तब भी मैंने सोचा अच्छा कोई नहीं यहाँ आ जाएगी माँ तो surprise दूँगा की माँ मैं counseling के लिए जा रहा हू, क्या ही हुआ होगा. रात लगभग 8-9 बजे माँ साथ मे चाची दोनों आए फिर माँ को प्राइवेट नर्सिंग होम में एडमिट किया डॉक्टर ने सामान्य घटना बतायी.दवाई सुई दी तो मम्मी थोड़ा relax महसूस कर रही थी तो मैं ठहरा बच्चा मैं भी निश्चित हो गया और क्योंकि उससे पहले ऐसी कोई चीज़ मैंने देखी नहीं थी इसलिए मुझे आभास नहीं था.मुझे उतनी समझ भी नहीं थी.ये प्रक्रिया लगभग 10-15 दिन चली क्योंकि डॉक्टर ने ऑपरेशन बताया,जब आपका patient सही हो तो हॉस्पिटल अच्छा महसूस कराता है और शायद बचपन वाली बुद्धि रही होगी कि भई माँ के लिए horlicks ला रहे है तो थोड़ा हमे भी मिल जा रहा है, माँ के लिए कुछ आ रहा है तो उसे खा ले रहे है, हॉस्पिटल आ रहे है तो पढ़ाई कम हो रहीं है इसकी कोई फिक्र नहीं उधर मेरी counseling की तारीख निकल रही है तो मुझे कोई चिंता नहीं और मैंने ये बात माँ को नहीं बतायी थी की मुझे counseling के लिए जाना है क्योंकि मुझे ये पता था मम्मी तुरंत कहती तुम जाओ मैं ठीक हू. 
      मेरे घर में मेरी माँ अकेली वो शक्स थी जिसे सबसे ज्यादा मेरी पढ़ाई और मेरे सीधे होने पर चिंता थी वो हमेशा ये सोचती थी की इसका जीवन कैसे कटेगा, बाहर भीतर कैसे जाएगा इसको कोई बहला - फुसला कर ले जाएगा लेकिन शायद मेरे जीवन का ये पल माँ के अंदर बैठे डर को निकालने के लिए आया था. 
  15 दिन बीत गए ऑपरेशन का दिन आ गया, घर से कुछ लोग आए लेकिन मेरे नाना-नानी के यहां से कोई नहीं आया.उसका कारण कुछ दिन पहले मेरी मम्मी का मेरे मामा के साथ विवाद होना था क्योंकि मेरी मम्मी का शासन केवल हम दोनों भाई पर ही नहीं मामा पर भी चलता था या नहीं भी चलता था तो वो अपने सामने किसी का अनुशासन तोड़ना बर्दास्त नहीं कर सकती थी, क्योंकि मेरी माँ एक शिक्षक की बेटी थी और उन के अंदर अनुशासन भरा हुआ था इसलिए मेरे नाना जी अपनी इस बेटी को बहुत मानते थे लेकिन समय का ऐसा चक्र चला की मात्र 20 km की दूरी से वो लोग चाह कर भी नहीं आ सके उन्हें मामा का डर रहा होगा शायद,क्योंकि समाज में बेटा को बेटी से बड़ा बना दिया जाता है जब उसको सामाजिक भाव का ध्यान दिलाया जाता है खैर 
    ऑपरेशन का दिन आया और डॉक्टर ने सारी तैयारी करवा ली और अचानक लगभग 9 बजे refer to PMCH वाली बात कर दी.उस दिन तक मेरे माथे पर बहुत ज्यादा शिकन नहीं थी लेकिन जब मेरी चाची ने कहा नूंनू यानी मुझे की पटना जाना पड़ेगा मैं शांत हो गया क्योंकि तब तक मैं बीमार का मतलब सिर्फ बीमार जानता था और मुझे लगा चलो यहां नहीं तो पटना में ठीक होगी.उस समय फोन,इन्टरनेट बहुत ज्यादा प्रचलन में नहीं था और उस समय तो रुक गया और मैं इस लेवल मे तो बिल्कुल नहीं था की कोई निर्णय ले पाऊ,जिसके लिए माँ को ये चिंता थी की ये ठगा जाता है हर जगह वो बच्चा क्या सोचेगा, मुझे तब तक ये नहीं समझ आया था की बड़ा बेटा हू मैं, पापा भी साथ में नहीं थे एक चाचा जो अपने तो नहीं थे लेकिन उन्होंने उस बुरे समय में अपने काम को छोड़ कर मेरे साथ पटना आने का निर्णय लिया जिसका एहसानमंद मैं आज तक हू की मैं उन्हें अपने चाचा से कम इज़्ज़त नहीं देता हू उनकी हर बात आज भी मेरे लिए लकीर है वो भी केवल इसलिए वो मेरे साथ तब पटना आए जब मेरा खून का कोई भी रिश्ता मेरे साथ नहीं था.एक मैं,चाची और वो चाचा.…..
मुझे ठीक ठीक याद नहीं शायद सुबह की ट्रेन से हम लोग पटना निकले. शाम में पहुंचे तो एक मैं और मेरी चाची पटना को कितना ही जानते थे, इससे पहले मैं कभी पटना आया नहीं था शायद. मेरे लिए ये शहर अनजान था, कुछ समय पहले ही मेरे परिवार में मेरे पिता जी की पीढ़ी के सबसे छोटे भाई और मेरे सबसे छोटे चाचा मंगल चाचा जो CA फाइनल कर चुके थे या फाइनल होने के दौरान ही रिलायंस कंपनी मे नयी नयी नौकरी कर ही रहे थे,वो हिम्मत का कारण बने हुए थे. शाम को पहुंचे PMCH साथ मे मंगल चाचा भी थे. डॉक्टर ने जांच पड़ताल के बाद महावीर कैंसर संस्थान ले जाने को कह दिया,बस यही वो शब्द था जिसने दिमाग को झकझोरना शुरू कर दिया, लेकिन चाचा ने हिम्मत बनाय रखा. हम लोग रात में ही महावीर संस्थान निकल गए और हम जिस होटल मे रुके उसके सामने ही महावीर संस्थान था. रात खा कर सो गए अभी तक भी मैं बहुत ज्यादा विचलित नहीं हुआ था शायद, ऐसा इसलिए हो सकता है या तो मुझे कोई जानकारी नहीं थी या मैं अभी तक इस भ्रम में था अच्छा माँ जाने. 
 लेकिन मैं उस समय इस मामले में गंभीर हुआ जब अगली सुबह उठने के बाद मम्मी की नजर अस्पताल के बोर्ड पर पड़ी जिसमें महावीर के बाद कैंसर लिखा था और मम्मी ने उसे पढ़ लिया और उसने मुझे बुला कर पूछा मुझे कैंसर हो गया है क्या शायद मम्मी उस शब्द को देख कर समझ चुकी थी मुझे कैंसर है इसलिए यहाँ लाया गया है और मैंने मम्मी की इस बात को अपने मन में बैठा लिया की कंही कैंसर तो नहीं,कंही मम्मी सही तो नहीं समझ रही लेकिन हमने अपनी समझदारी से मम्मी को झूठा साबित कर दिया कहा नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है शायद वो मेरे समझदार होने का पहला वाक्या था और यहीं से समझदारी का टैग मुझ पर लग चुका था. 
         वो शनिवार का दिन था जब वहां पहुंचे. वो शनि आज तक मुझ पर प्रभावी रहा.उस दिन एडमिट नहीं करने का कोई नियम है अस्पताल में. यानी शनिवार और रविवार भगवान का नाम ले कर ही कटा. मम्मी को खाने - पीने में काफी दिक्कत हो रहीं थीं क्योंकि मम्मी मेरी काफी सात्विक,घर में बिना लहसून-प्याज का खाना बनता था,बिना नहाए माँ खाना नहीं बनाती थी उन्हें अन्दर ही अन्दर ये लग रहा था की उनका धर्म नष्ट हो रहा है वो खाना खाने से बचती रही. बिस्किट, पानी, फल यही सब खा कर दो दिन उनका निकला. 
 सोमवार को जब डॉक्टर की देख रेख मे उनका इलाज शुरू हुआ, लेकिन मैं जिद्द मे था माँ को ठीक करके ही ले जाना है मैं माँ को जब तकलीफ मे दर्द से परेशान देखता था तो खड़ा नहीं रह पाता था और माँ उस घड़ी मे भी माँ होने का फर्ज निभा रही थी, दर्द रहते हुए कहती थी बिल्कुल ठीक हुँ क्योंकि वो ये समझ रही थी जिस बच्चे को खुद से पानी का ग्लास लेने नहीं देते है आज मेरे मेरे कारण लाचार, बेबस बना हुआ है. 
 फिर इलाज शुरू हुआ जांच रिपोर्ट आने से पहले ही माँ को एडमिट कर लिया गया. माँ के साथ हॉस्पिटल मे चाची रहती थी और मैं पूरे दिन नीचे ऊपर करता रहता था. 6th फ्लोर पर मम्मी का कमरा था.मैं उस समय इतना पागल की तरह करता था की 6th floor के लिए मैं लिफ्ट का इंतजार नहीं करता था, मुझे न कोई थकान होती थी न कोई परेशानी. बस ये सुनना चाहता था की कैंसर नहीं है. लेकिन कुछ दिनों के बाद रिपोर्ट आ गयी और उसमे ऐसा कुछ भी नहीं था जो ये बताए की कैंसर है यानी 50-50. डॉक्टर ने साफ साफ कहने से मना कर दिया उसने कहा की ठीक हो जाएगा मरीज़. बस फिर क्या था मैं इतने मे ही खुश था और मैंने इस पर क्रॉस चेक करना सही नहीं समझा, मतलब मेरे मन में डर था की कोई कुछ बता न दे और वही पर डॉक्टर की देख रेख मे इलाज चलता रहा. मानसिक तौर पर मुझे सुकून मिल चुका था और मैं खुश था और इधर मैंने पापा को भी बताया था की नहीं सब कुछ नॉर्मल है मम्मी बिल्कुल ठीक है आप टेंशन न ले क्योंकि मेरे पिता जी बड़े ही सीधे लोग है वो, मम्मी के रहते कभी उनको ये टेंशन नहीं लेना पड़ा की उनके बच्चे को क्या जरूरत है,वो सिर्फ रविवार के दिन बैठते थे और हमारी कॉपी किताब के कवर से लेकर हमारी हर शिकायत की सुनवाई करते थे लगता था कोई कोर्ट बैठा हो,हालांकि उनका शासन मार-पीट से ज्यादा कुछ नहीं था.मम्मी अपने पति से लेकर,अपने बच्चे का,अपने परिवार का ख्याल बड़ी ईमानदारी से रख लेती थी और हमारे लिए कभी कभी अपने परिवार यानी मायके से लड़ लेती थी. 
  माँ जिस समय अस्पताल में थी उसी समय मेरे फूफा जी आईसीयू पूर्णिया मे भर्ती थे यानी माँ और फूफा को एक दूसरे के बारे में पता नहीं था. यानी घर का बड़ा दामाद और बड़ी बहु दोनों जीवन और मौत से लड़ रहे थे. 
इधर माँ का इलाज अगर-मग़र यानी डॉक्टर बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं कर पाया की माँ की क्या स्थिति है. इधर घर के सगे संबंधी हॉस्पिटल पंहुच रहे थे इसी बीच बाबा (पटना वाले) उनको कंही न कंही शक था की शायद मामला उलझा हुआ है. डॉक्टर से उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर रुचि लेते हुए देखने की बात कही तो डॉक्टर अगले ही दिन व्यक्तिगत रुचि लेते हुए action मे आ गयी और फिर चार-पांच डॉक्टर की देख रेख में फिर से जांच शुरू कर दी. उन्होंने मुझे स्पेशल treatment के तहत बुलाया और मुझसे कहा तुम्हारे साथ और कौन है तो मैंने कहा मैडम मैं ही हू तो उन्होंने कुछ देर मुझे गौर से देखा और मेरी उम्र पूछी और मुझे वो बताने मे हिचक रही थी लेकिन मैंने ही कहा मैडम मुझे बताईए जो भी है,उन्होंने कुछ देर बाद अकेले मे ले जा कर मुझे सांत्वना दी और कह दिया बेटा लेट हो गया.मुझे अफसोस है कि मैं कुछ कर नहीं पायी.तुम अब माँ की सेवा करो. दुनिया के किसी कोने मे ले जाने से कोई फायदा नहीं है. मैं उस समय बिल्कुल पानी हो चुका था लगा शरीर में खून का प्रवाह कम हो गया हो.चूंकि डॉक्टर महिला थी इसलिए कंही न कंही उनका मन भी भारी हो गया.मैं वहां से निकला लेकिन किसी को कुछ नहीं बताया लेकिन बाबा को डॉक्टर से सारी बाते पता चल चुकी थी. 
इसी बीच पापा को मैंने किसी तरह समझा कर यहां से भेज दिया उनको कहा पूर्णिया चले जाने और अपने बहनोई(फूफा जी) को देख लेने के बहाने भेज दिया क्योंकि मैं अब समझ चुका था की माँ अब मेरी नहीं रही और पापा को रोते देख कर मैं काफी बेचारा बना हुआ था इसलिए बड़ी हिम्मत वाला फैसला था ये मेरा पापा को यहां से भेजना.शायद उसी दिन से मुझे सारे निर्णय और उसकी परेशानी खुद पर उठाने की आदत सी हो गयी,जिसके कारण मैं आज भी कोई बात किसी को बता नहीं पाता,मैं अपने जीवन के निर्णय भी खुद से नहीं ले पाता आज भी मेरी स्थिति ऐसी है की मुझे कोई भी ज्ञान दे कर चला जाता है की तुम decision नहीं ले पाता. शायद ये प्रभाव मेरे ऊपर तब से ही आ गया है.
मैंने पापा को ये कह कर भेज दिया मैं देख लूँगा आप जाइए अपनी बहन के पास,हालांकि मेरा अनुभव इतना नहीं था की मैं ऐसे निर्णय ले पाऊँ.इसको ले कर बाबा और मेरे बीच थोड़ी तल्खी हुई उनका भी सोचना ठीक था की तुम कोई निर्णय कैसे लोगे अगर कुछ हो गया तो मैंने उनको साफ साफ कह दिया मैं देख लूँगा जो होगा, मैं जान चुका हू की माँ अब शायद नहीं रहेगी ये बात सुन कर वो भी चुप हो गए और मेरी भावना उनको समझ आ गयी. 
उसके बाद मेरा समय कैसे निकल रहा था एक एक पल साल की तरह निकल रहा था.मैं उसके बाद पूरे दिन मम्मी के रूम से बाहर रह कर अपना समय निकालता था.मैं उनके सामने नजर झुका कर रहता था, वो बार बार मुझे देख कर बात करना चाहती थी. 
कीमोथेरेपी चालू हो चुका था और वो सिर्फ formality ही थी लेकिन मुझे लगता था जितना ज्यादा दिन तक माँ रह सके और एक उम्मीद अंदर ही अंदर जिंदा थी. 
मैंने एक समय वो भी देखा है जब एक दिन माँ को बहुत तेज दर्द होता था तो वो डॉक्टर को बुलाने बोलती थी कि वो सुई दे दे ताकि मुझे कुछ राहत मिले,मैं माँ का दर्द देख कर रूम से निकल कर एक कौने में जा कर रोता था और भगवान को कहता था माँ को अपने पास बुला ले लेकिन ये कष्ट न दे,ये बात सोचते हुए मैं सिहर जाता था. मैं माँ के बिना कल्पना नहीं कर सकता था. 
 माँ अपने बुरे समय में अपनी बीमारी के साथ साथ अपने इमोशंस से भी लड़ रही थी, क्योंकि उनके साथ उनके माँ बाप अभी नहीं थे,उनके साथ उनकी वो गोतनी थी जिसके साथ उनके संबंध अच्छे नहीं थे यानी बोलचाल तक नहीं,वो एक दिन मुझे अपने पास बैठा कर बोलने लगी हम बिना नहाए खाते नहीं थे और आज लहसून प्याज अंत समय में खा रहे है. जिससे मेरी बोलचाल नहीं वो आदमी मेरा साथ दे रहा है हम पिछले जन्म मे कोई पाप किए होंगे.मैं अपनी चाची का ये एहसान आज तक नहीं भूला हू इसलिए मैं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके लिए खड़ा रहता हू, उनके इस एहसान के कारण मैंने उनकी बेटी यानी अपनी बहन की शादी में अपने औकात से बाहर जा कर सब कुछ किया, उनके बेटे को अपने पास पढ़ने के लिए रखा, मैं कंही न कंही ये सोचता हू उनका एहसान मुझ पर है. यानी जीवन की वो अवस्था जंहा मुझे खुद के लिए सोचना चाहिए मैं ऐसी ऐसी बातों को ले कर सोचता हू यानी केवल माँ के रहने से मैं ऐसी चीजों से मुक्त रहता. 
   फिर कीमोथेरेपी के एक चरण के पूरा होने के बाद एक महीने के बाद अगली बार आने के लिए बोला गया. 
चूकी माँ ट्रेन से ही जाने मे सक्षम थी इसलिए किसी तरह टिकट कन्फर्म करवा कर हम लोग रात की ट्रेन से निकले. 
राजेंद्र नगर स्टेशन पर जब अचानक ट्रेन के प्लेटफॉर्म बदलने की सूचना हुई तो चूंकि माँ तो चलने मे सक्षम नहीं थी तो माँ को बच्चे की तरह गोद में उठा कर मैं सीढ़ी पर चढ़ रहा था तो मैं अपने चेहरे को आसमान की तरफ करके अपने आंसू को छिपा रहा था वही दूसरी तरफ लगातार माँ मेरी आँखों को निहार रही थी,वो एक टक मुझे ही देख रही थी.उनकी आँखों को ये एहसास हो चुका था मेरा बेटा अब अकेला हो गया है .वो ये बुदबुदा रही थी बेटा मैंने तुम्हारा जीवन खराब कर दिया. वो अपनी चिंता से कंही ज्यादा मेरी चिंता मे थी शायद यही माँ होती है जो अपने दर्द मे भी अपने बेटे के लिए सोचती है.वो यही सोच रही थी की जो बेटा मेरे बीमार रहने पर दिन भर भूखा रह जाता है लेकिन खाना खुद से नहीं लेता वो मेरे बिना कैसे रह पाएगा,और कंही न कंही ये सच भी है की मुझे अभी तक पानी खुद से न लेने की आदत बनी हुई है, मैं ये काम मजबूर हो कर करता हू, आज भी मैं बाथरूम में तौलिया ले जाना भूल जाता हू क्यूंकि माँ हमेशा मेरे लिए ये काम करती थी. 
  ट्रेन से पटना छोड़ते वक़्त एक उम्मीद की फिर आयेंगे और शायद कोई चमत्कार माँ को ठीक कर देगा लेकिन उस समय पटना छोड़ कर माँ तो वापस न आ सकी लेकिन ये बेटा उसका आज भी पटना मे घुटता है और किसी से कुछ कहता नहीं है. ट्रेन सुबह-सुबह भागलपुर स्टेशन पहुँच गयी हम लोग भागलपुर स्टेशन उतर गए क्योंकि स्टेशन पर नाना - नानी को आना था माँ से मिलने. वो आए तो माँ अपनी माँ को देख कर अपने आंसू रोक नहीं पायी और स्टेशन पर बहुत सारी बाते हुई तब तक मेरे मामा का भी गुस्सा निकल चुका था वो पटना कुछ दिन पहले आए थे. नाना - नानी से बात हो रही थी माँ की, तो उनको वहां भी मेरी ही चिंता लगी हुई थी. उन्होंने अपनी माँ यानी नानी का हाथ पकड़ कर कहा राहुल (यानी माँ द्वारा बोला जाने वाला मेरा नाम) ने मेरा कर्ज उतार दिया. अब ये जी लेगा. ये मेरा बहुत सेवा किया है माँ इसको देखना. अब तक माँ समझ चुकी थी की वो अपने बेटे का ख्याल नहीं रख पाएगी. वो हमको छोड़ कर जाएगी इसकी चर्चा उसने अपने आप से कर ली थी. ऐसा नहीं है की केवल मेरे ही साथ ऐसा हुआ तो परेशान हू क्योंकि मैं ऐसी जगह पर था जंहा मुझे माँ की सख्त जरूरत थी और ऐसी माँ जिसने मेरे सारे निर्णय लिए हो उसका बिना कुछ समेटे चले जाना मुझे तोड़ गया और जिसका खामियाजा आज तक भुगत रहा हू. मैं अपने जीवन में looser से ज्यादा कुछ नहीं रहा. 
ना माँ के लिए अच्छा बेटा बन पाया, पिता जी से ऐसा संवाद नहीं रख पाया की वो मेरी भावना को समझ पाए, मैं उनकी नजर में मेरा हाल बहुत अच्छा नहीं है,मैं न भाई के लिए अच्छा भाई बन पाया मेरा ऐसा व्यवहार नहीं रहा की वो अपने emotions मुझसे share करे.,हाल के दिनों मे मैं और ज्यादा दूर हो गया हू परिवार से और मुझे मेरा परिवार दुश्मन की तरह नजर आने लगा है, न दोस्तों के लिए अच्छा दोस्त बन पाया जिन्हें ये शिकायतें रहती है कि तुम कुछ बताता नहीं है. न ही खुद के लिए सही रह पाया जो अपने लिए अपनी बात किसी के सामने रख पाया यानी जीवन जी लेगा ये सोचना माँ का कितना सही था ये पता चल रहा है मुझे. 
खैर 
वहां से घर आए, काफी लोग माँ को देखने आये. लेकिन घर जाने के बाद भी उस परिस्थिति मे भी माँ को ये चिंता की बेटे की पढ़ाई बर्बाद हो रही है. हम लोग घर पहुचे तो दो दिन के बाद मेरा AIEEE वाला लेटर भी डाक द्वारा पहुच गया और माँ को पता चल गया की बेटा को कंही न कंही हमने रोक दिया, उन्होंने हमसे पूछा तुमने बताया नहीं मैंने कहा मुझे नहीं करना इंजीनियरिंग.उन्होंने पूछा क्यों? मैंने कह दिया मेरी कोई रुचि नहीं. वो चुप हो गयी और रोने लगी.बोलने लगी सबसे ज्यादा हम ही सोचते है की मेरा बेटा अच्छे जगह से पढे. मैंने कहा आप ठीक हो जाइए तब सब होगा.माँ को ढाढस दिया. माँ थी तो मजबूत काफी. बोली तुमको दिल्ली जाना है पढ़ने तुम अपनी पढ़ाई देखो मुझे छोड़ दो,यहां सब देखेगा.  वो माँ ही थी जिसका सपना था बेटा जंहा चाहे वहां पढ़े, कुछ बड़ा करे, लेकिन बेटा! खैर कभी कभी सोचता हू की वो अपने नालायक बेटा को नहीं देख रही है तो सही भी है कम से कम वो तो चैन मे है नहीं तो वो बेचैन रहती मेरे हाल को देख कर. मैं अपना दर्द कितनी खूबसूरती से छिपा लेता हू ये माँ के रहते नहीं करना पड़ता. खैर... 
    मैं मन ही मन सोच चुका था की माँ की सेवा करेंगे, एक दो साल तो माँ रहेगी ही सेवा करेंगे खूब तो,लेकिन मैं घर मे कभी माँ के नजर के सामने आना नहीं चाहता था. 
  अभी तक मेरा छोटा भाई (विशाल) जो शुरू से ही हास्टल मे रहता था उसको बहुत बाते पता भी नहीं थी. वो केवल जानता था की हाँ तबीयत खराब है बस, और वो मुझसे 6-7 साल छोटा था ही साथ ही शुरू से घर परिवार से दूर रहने के कारण वो इमोशंस से दूर ही था उसके लिए उसका हास्टल ही उसका परिवार था. 
   नवरात्रि का समय आने वाला था, एक दिन पहले नाना जी हमारे घर आ चुके थे. मैं घर जाने के बाद ज्यादातर घर से बाहर रूम में बंद रहता था,मैं माँ के सामने बहुत कम जाता था,मैं अंदर ही अंदर डरा हुआ था की कुछ अनहोनी न सुनूँ. 
माँ के पिता यानी मेरे नाना जी और मेरी माँ के बीच हमेशा एक स्वस्थ डिबेट होती थी,दोनों बाप बेटी की चर्चा सुन कर लगता ही नहीं था की बाप-बेटी के बीच भी इतनी बहस हो सकती है और दोनों का एक दूसरे के प्रति लगाव अत्यंत जो अक्सर एक बाप और बेटी का होता है शायद. 
अगले दिन नवरात्रि की पहली पूजा थी तो नाना जी योगिनी मंदिर के लिए सुबह सुबह निकल चुके थे शायद बेटी के लिए ही प्रार्थना करने गए होंगे,लेकिन शायद माँ मेरी अपने पिता जी का ही शायद इंतजार कर रही थी. उनकी अपने पिता जी से दिल खोल कर बाते हो चुकी थी,इसलिए वो अब यहां से जाने का,हम लोगों को छोड़ने का मन बना चुकी थी.दिन में अचानक चारों तरफ रोने की आवाज आने लगी मैं दरवाजे पर था,अचानक घर की तरफ दौड़ा वहां जो देखा वो मेरे जीते जी मेरे मरने की शुरुआत थी,मेरे सारे सपनों का खत्म होने जैसा था,ये मेरे जीवन का पहला और सबसे बड़ा खोना था, 
खोया मैंने माँ को,
खोया जीवन जीना सिखाने वाले को,
खोया जीवन की पहली स्त्री को, 
खोया मैंने एक स्त्री के स्पर्श को. 
खोया वो सब कुछ जो दुबारा नहीं मिल सकता 
सब लोग मुझे पकड़ कर रोने लगे और मैं कांप रहा था और बेहोश हो कर गिर गया मुझे टांग कर द्वार पर ले जाया गया और मैं काफी देर तक शांत नहीं हुआ.इस बीच विशाल को हास्टल से लाने पापा निकल गए, क्योंकि उसे हास्टल से वही ला सकता था जिसका वहां नाम हो,लेकिन पता नहीं क्या कृपा थी विशाल बिना किसी जानकारी के हास्टल से परमिशन ले कर पहले ही निकल चुका था. 
वो अचानक घर पहुंचा तो उसे देख कर उसके चेहरे पर बिना किसी शिकन के,मुस्कुराते देखा तो लगा की ऐसा क्यों, इसको पापा ने नहीं बताया क्या. लेकिन वो तो पापा के जाने से पहले निकल चुका था यानी वो माँ से मिलने निकला था लेकिन उसे क्या पता,हालांकि वो इतना छोटा ऊपर से सब दिन हास्टल ही रहा तो वो मेरे मुकाबले थोड़ा मजबूत था,मैं तो इस घटना के लिए तैयार था इतने दिनों से तो भी मैं कांप रहा था. उसने अचानक माँ को इस तरह देखा तो उसको पकड़ कर सब रो रहा था लेकिन वो शांत खड़ा रहा.लोगों ने उसको मजबूत देख कर ये निर्णय भी ले लिया की अग्नि कार्य विशाल से ही कराया जाए,क्योंकि नीलेश तो बेहोश हो जा रहा है वो कांप रहा है. 
अगले दिन भागलपुर गंगा किनारे अग्नि कार्य के लिए ले जाया गया. मैंने अपने पुत्र धर्म के अनुसार अपना काम किया, विशाल उस समय बहुत छोटा ही था. मैं शायद अपनी जिम्मेदारी के लिए तैयार हो रहा था. अग्नि कार्य के बाद वो जो लकड़ी तोड़ कर पीछे की तरफ फेंका जाता है जिसे पंचकाट बोला जाता है कहा जाता है जिसके बाद इंसान का इस आत्मा से वास्ता खतम. लेकिन मैं आज तक उसकी कमी और उसके कारण इमोशंस के स्तर पर अपने आप को इतना कमजोर कर चुका हू की उठ नहीं पा रहा अब तक. 
माँ के जाने के 15 दिन बाद ही फूफा जी का देहांत, मतलब घर का माहौल ही अजीब था. अचानक सारा मूवमेंट पूर्णिया शिफ्ट हो गया और घर के सभी लोग फूआ के पास चले गए, मैं बिल्कुल अकेला रह गया अब मैं रो नहीं पाता था क्योंकि इंसान तब रोता है जब उसे लगता है कोई उसे चुप कराए. कोई तब रूठ ता है जब लगता है उसे कोई मनाये गा. 
इसी बीच मैं बिल्कुल शांत हो चुका था, मैं एक नजर किसी को देखता रहता था तो देखता रहता था. मैं बोलना, हंसना भूल गया. अकेला रहना अच्छा लगता था. यानी अभाव एक प्रेम का, अभाव लगाव का, एक कमी जो कभी न पूरी हो सकती है. 
उस कमी के कारण ये हुआ की मैं कुता बन गया. मुझसे प्यार से कोई बेटा बोल दे,कोई मेरा ख्याल रख ले,मैं उसमे उसी स्तर तक डूब जाता हू,जैसे किसी कुत्ते को रोटी एक दिन दे दीजिए वो दुम हिला कर अगले दिन से आगे पीछे करने लगेगा, बिल्कुल वैसा ही हाल मेरा भी हो गया है. कुछ दिन तक दया दिखाता है कोई रोटी खिलाता है फिर लात मार कर भगा देता है. मुझसे कोई ढंग से स्नेह कर लेता है तो मैं उसमे माँ का रूप देखने लगता हू और इसके कारण मैं बार बार गिर जाता हू. 
  मैं आज तक उस प्यार के लिए तड़पता रहा हूं ,मुझे जो लोग उसके बाद मिले भी उन सबने अपने हिसाब से,अपनी दया दृष्टि दिखा कर, मुझे अपनी दया का पात्र बना कर रखा. मतलब मैं आज बहुत अच्छा अगले दिन मेरे नाम से घृणा. कभी कभी मुझे लगता है जो कहते है न की माँ के जाने के बाद संसार खतम हो जाता है वो यही है की लोग आपसे और आप के नाम से घृणा करने लगेंगे यही होता होगा उसका मतलब. उस माँ के जाने के बाद घर से बाहर तक लोगों ने मुझे बेचारा सा बना दिया. 
 चूंकि माँ के जाने के बाद मैंने हर जिम्मेदारी को उठाने का प्रयास किया. मैंने सबसे पहले बड़ा भाई के रूप में माँ बनने का प्रयास किया. लेकिन इसी बीच मैं अपनी उम्र से बड़ा हो गया.मेरा किसी से भी रिश्ता काम भर का ही रहा.मैं अपनी भावना किसी के पास नहीं निकाल सकता, मैं किसी पर गुस्सा नहीं दिखा सकता और मैं किसी के पास रो नहीं सकता. जिसके पास थोड़ा लगा की शायद रो लू तो वो मुझे कमजोर मान कर मुझसे दूर हो जाता है. 
स्त्री का प्यार मुझसे छुआ छूत की तरह है वो मेरे पास आता है तो मैं घृणा का पात्र हो जाता हूँ. मैं ट्रेन के डिब्बे की उस सीट की तरह हो गया हू जिस पर बैठने के लिए सब लड़ते है और अपने स्टेशन पर पहुँच कर उतर जाते है और सीट को भला बुरा कह कर भूल जाते है. 
मेरी सोच स्त्री को लेकर बहुत अच्छी शायद नहीं है ऐसा लोगों को लगता है,कभी कभी ऐसा मुझे भी लगता है.
लोगों को लगता है और लगता क्या ये सच भी है की इसके जीवन में न दादी,न नानी,न बहन,ना माँ तो ये उस व्यवहार को नहीं जानता होगा इसलिए इसका व्यवहार सही नहीं होगा, लेकिन फिर ये भी सोचता हू की मेरा व्यवहार तो गलत होगा मैं अपनी गलती भी मान लूँ लेकिन मेरे जीवन में और किसी स्त्री का व्यवहार ऐसा क्यों नहीं था जो मुझे सम्भाल सके. 
 मेरे जीवन में दूसरी महत्पूर्ण स्त्री रही नानी जिसका दुलार प्यार हमेशा मिला, माँ के जाने के बाद उनसे भी दूरी ही गयी क्योंकि मन में आ गया अगर बेटी नहीं तो नाती कंहा. 
उसके अलावा मेरे जीवन में कुछ लोगों ने आना चाहा, असल में लोगों ने मुझसे Contact बनाये, रिश्ता नहीं, शायद रिश्ता बनाने लायक मैं नहीं था . और कुछ आए भी.कुछ लोगों को मैं,अपने से दूर इसलिए रखता रहा मुझे अगर लग जाता है की मैं इसके साथ जीवन भर नहीं चल पाउंगा तो मैं उसे ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहता की वो मेरे नजदीक आए और उसे मैं इग्नोर करू,क्यूंकि मैं इग्नोर करने वाला होता कौन हू,भगवान सबका हिसाब खुद करता है. यानी इग्नोर की नौबत नहीं आने देता जो आए वो हमेशा के लिए आए न तो न,क्योंकि मुझे खोने से बहुत डर लगता है.मैं एक तिनका भी अब खोना नहीं चाहता न मोती जमा करने का शौक है मुझे. परफेक्ट इंसान न होता होगा न मुझे कभी चाहिए, मैं genuine इंसान चाहता हू. मैं माँ के उस बात को हमेशा याद रखता हू बेटा किसी के जीवन से खिलवाड़ मत करना,अगर कोई लड़की जो हो, जैसी हो क्योंकि अच्छा का कोई अंत नहीं है इसलिए उसके लिए लड़ना पड़े तो लड़ना लेकिन उसको अपने घर ले कर आना. 
 मेरे जीवन में स्त्री विमर्श का अभाव रहा, मैंने कहा बहुत कुछ लेकिन बता नहीं पाया, लोगों ने मुझे सुना बस समझ नहीं पाया. वो मुझे बस दुनिया की चकाचौंध जितना ही समझ पाए, वो मेरी सोच को इतना ही समझ पाए जितना उन्होंने समझना चाहा, मैं समझदारी को अपने ऊपर इतना ओढ़ चुका हू की बहुत बार बता नहीं पाता किसी को.और उनकी धारणा बाजार के हिसाब से बनी हुई है,आज के दौर के हिसाब से बनी हुई है, मैं या तो किसी को समझा नहीं पाता और दूसरी बात मेरे जैसे लापरवाह इंसान की कोई क्यों समझे. इसलिए लोगों ने मुझे मजबूर समझ कर पल्ला झाड़ना उचित समझा.मेरा सम्बंध किसी से अगर अच्छा हो जाता है तो मैं पूरे परिवार को अपना परिवार समझ बैठता हू ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए की मैं उस स्नेह से सदा दूर रहा हू और लोगों को लगने लगता है ये कोई बेचारा है, निरीह प्राणी है और इस तरह लोग हमसे पीछा छुड़ा लेते है. और मैं सामने वाले की मजबूरी भी समझता हू, मुझे इतना पता है मैं किसी के लिए जरूरी तो हू मग़र इतना जरूरी नहीं की लोग मेरे लिए खड़े हो जाए, अड्ड जाए. 
मेरे घर में अपने परिवार का मेरे साथ जो व्यवहार है वो मुझे कभी कभी असहज बना देता है लेकिन उनके इस व्यवहार के बाद भी मैं उनके साथ खड़ा रहता हू आखिर क्यों? मैं हाल के दिनों में रात मे सो नहीं पाता,आंख बंद होती है तो भी दिमाग मे कुछ न कुछ चलता रहता है, शायद नींद मे बड़बड़ाता भी हू. मैं डरा डरा रहता हूं इंसानो से, मैं निर्णय लेने में असमर्थ पाता हू खुद को जबकि मेरे पास निर्णय लेने के पक्ष में तमाम तर्क मौजूद होते है. मुझे ये एहसास होता है की जीवन में fire wall रूपी रिश्ते का होना कितना आवश्यक है. जिसका न होना मानसिक रूप से मजबूत बनाता है. दशक बीत जाने के बाद भी मैं आज तक उस पीड़ा से निकल नहीं पाया हूँ. 
इसलिए क्योंकि मैं इमोशनल स्तर पर काफी कमजोर हू, जिसके कारण मैं पीछे रह जा रहा हू. 
लेकिन माँ को ये कौन बताएगा, तूने सब दिन मेरी चिंता की और मेरे संकट मोचक के रूप में खड़े रहे और आज तूने ही संकट बना दिया.एक तेरे न रहने से मेरा जीवन उलझ चुका है मुझे घर मे किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता. मैं बहुत दबाव महसूस कर रहा हूं माँ. कोई साथ नहीं देता. तूने ठीक नहीं किया माँ..... 

 शेष................... 

        नीलेश सिंह 
 ✒️पटना विश्वविद्यालय 






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