डॉ संजीव कुमार सिंह
कोशी_शिक्षक_निर्वाचन
#जीत_से_बड़ी_जीत_के_मायने
बीते दिनों बिहार के अलग अलग विधानपरिषद क्षेत्रो के चुनाव के परिणाम आए,जिसमें दलगत स्थिति पर नजर डाले तो 2 जदयू, 2 भाजपा और 1 प्रशान्त किशोर समर्थित प्रत्याशी की जीत हुई. इन 5 सीटो के चुनाव में सबसे ज्यादा किसी बात की चर्चा है तो वो ये कि प्रशांत किशोर के प्रत्याशी की जीत. लेकिन इसी बीच एक चुनावी क्षेत्र जो सबसे ज्यादा ध्यान खींचता है वो है कोशी शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र. इस चुनावी क्षेत्र की जीत मतदाताओं के साथ साथ तथाकथित चुनावी रणनीतिकारो के लिए खोज का विषय होना चाहिए. इस जीत को पारंपरिक जीत कहा जाए, जीत का चौका, या जीत का दहला कहा जाए लेकिन इन सब के बीच हर चुनाव की जीत के बाद अगली बार आपके वोट को कम करने की आहट दिखाता है जिसे हम लोग anti incumbency कहते हैं,वही दूसरी और जो प्रत्याशी 2009 से इस सीट से जीत रहा हो या 1974 से भी कहें तो कोई गलत बात नहीं होगी.
1974 से इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व प्रो डॉ शारदा प्रसाद सिंह जो वर्तमान विधान पार्षद डॉ संजीव कुमार सिंह के पिता भी है वो करते आ रहे थे. उन्होंने एक ऐसे दुर्ग का निर्माण किया जो आज तक कोई नहीं तोड़ पाया. उन्होंने 2008 तक इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया और उनके देहांत के बाद वर्तमान विधान पार्षद और उनके पुत्र डॉ संजीव कुमार सिंह ने इस जीत की परंपरा को कायम रखा. उनकी पहली जीत सहानुभूति की जीत मान भी लें अगर, तो वो वर्तमान में सारण क्षेत्र को देख सकते है,हालांकि ऐसे चुनाव में भावना की बात कह पाना सही नहीं होगा, क्यूंकि जो मतदाता इस चुनाव में वोट देते हैं वो भावनात्मक रूप से मजबूत होता है,उन्हें समाज में सबसे मजबूत वर्ग माना जाता है,उन्हें समाज के बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बोधित किया जाता है और ये बुद्धिजीवी समाज सोच समझकर ही निर्णय लेता है क्योंकि सहानुभूति ही अगर विषय होता तो शायद वर्तमान में सारण चुनाव में स्वर्गीय केदार पांडेय के देहांत के बाद लोग उनके बेटे को वोट करते लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस जीत को कोई पार्टी अपने आप को संतुष्ट करने के लिए पार्टी की जीत कह सकती है लेकिन क्या समाज के बुद्धिजीवी लोग पार्टी देखते है, या वो देखते भी है तो 49 साल से एक ही व्यक्ति पर भरोसा कैसे कर सकते है, लगभग 50 बर्षों मे प्रतिनिधि तो एक ही घर के लोग रहे,लेकिन मतदाता तो बदले,उनकी समस्या तो बदली,राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में भी परिवर्तन हुआ. इन सबके बीच समाज का ये बुद्धिजीवी वर्ग जिसने एक ही परिवार पर अपना भरोसा कायम रखा,कैसे? समाज का ये वर्ग सारे निर्णय अपने हित और समाज के हित को ध्यान में रख कर लेता है,जंहा एक तरफ हम प्रशांत किशोर को रणनीतिकार बता कर उनकी जीत को चाणक्य की जीत बता देते है वही दूसरी और इस विषय पर चर्चा नहीं कर पाते है की कोई कैसे इतने दिनों से जीतता आ रहा है,आखिर इनके पास कौन सा चाणक्य है, इनका व्यवहार ही इनका चाणक्य का काम करता है lजंहा एक तरफ सारे प्रत्याशी एक-एक वोट के लिए जद्दोजहद करते है वही एक प्रत्याशी के सामने उसके सारे विपक्षी चेहरे अपनी जमानत भी नहीं बचा पाते है,अगर पार्टी या दल इस चुनाव मे इतना मायने रखता तो भाजपा जैसी बड़ी पार्टी का इस चुनाव में ये हाल नहीं होता. ये जीत व्यवहारिक पक्ष को भी उजागर करती है, जो वर्तमान के नेताओ मे दूर-दूर तक नहीं दिखती, वर्तमान समय में न तो प्रतिनिधि मतदाता को उचित सम्मान देते हैं और न ही मतदाता प्रतिनिधियों को सम्मान देते है. व्यवाहारिक पक्ष जो वर्तमान पार्षद (डॉ संजीव कुमार सिंह) को इस लाइन मे सबसे आगे रखती है. इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यसभा और विधान परिषद जिसे उच्च सदन कहते है और उसे woofer house भी कहते है, जहां प्रतिनिधियों से उम्मीद की जाती है की वो अपने मतदाता की आवाज बने और मुद्दों पर सदन में चर्चा करे,लेकिन आज की स्थिति पर ध्यान दे तो इस उच्च सदन में भी प्रतिनिधि जो चुन कर जा रहे हैं वो अपनी पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर मतदाताओं के मुद्दे पर बोल तक नहीं पाते हैं,वो अपनी पार्टी से ऊपर सोच भी नहीं पाते और इस सदन का गठन जिस बात को ध्यान में रख कर किया गया वो पूरा नहीं हो पाया, दूसरी और डॉ संजीव कुमार सिंह जैसे नेताओ की बात करे तो उनके लिए चुनाव महज औपचारिकता दिखता है जंहा नामांकन करना है, वोट गिरेगा और जीत हो जाएगी आखिर ऐसा कैसे. ऐसा होने के पीछे सबसे बड़ा कारण है man to man यानी voter to voter संवाद, आज के समय में जंहा आप नेता को call करते हैं तो उनके सचिव आपका फोन receive करते हैं, वही माननीय पार्षद जी फोन खुद से उठाने से आगे बढ़ कर call receive नहीं कर पाने की स्थिति मे उसे return call करके समस्यायों से रुबरु होते है, उनके ऊपर पार्टी लाइन महज नाम की बात सी लगती है इनके लिए सर्वोपरि मतदाता होता है. जिनके चुनावी क्षेत्र में 14 जिले, 197 प्रखंड, 65 विधायक और लगभग 12 सांसद चार(भागलपुर, मधेपुरा,पूर्णिया, मुंगेर) विश्वविधालय आते हो वो इतनी सहजता से संवाद स्थापित इतने सहज तरीके से कैसे कर लेते हैं. सीनेट,सिनडीकेट हो या सदन के अंदर अपने मतदाताओं के लिए इतना मुखर कैसे होते हैं उनका हित ही उनके लिए सर्वोपरि होता है.आखिर कैसे? बहरहाल क्यूंकि समाज में आज भी भाजपा को बड़े लोगों की पार्टी कहा जाता है. चुनाव का गुना-गणित करने वाले जो भी हिसाब लगाए लेकिन ये जीत महज एक जीत न होकर हर प्रत्याशी के लिए सोचने का विषय है,शोध का विषय है? कि कैसे कोई एक व्यक्ति अपने मतदाता को अपने काम से हमेशा उन लोगों के बीच अपने आपको रखकर मतदाताओं की समस्यायों को खुद से ऊपर और पार्टी से ऊपर रखता है. कैसे कोई प्रत्याशी अपने मतदाताओं के लिए अपने निजी फायदे को छोड़ देता है, वर्तमान परिस्थिति में जंहा लोग दल के भरोसे लड़ते हैं और जितने के बाद उस दल-दल से निकल कर सदन में एक सवाल नहीं पूछ पाते,जंहा लोग जितने के बाद इस बात का ख्याल रखते है कि उनके बोलने से उनकी पार्टी पर क्या असर होगा,वही दूसरी और ऐसा नेता जो अपने मतदाता (शिक्षक) के हित को पार्टी लाइन से ऊपर रखता है और सदन में जोरदार ढंग से शिक्षकों के सवाल रखता है. जिसके लिए उच्च सदन का गठन ही हुआ है. जंहा एक चुनाव जीत कर लोग जनता के पास जाने से कतराते है वही दूसरी और एक नेता अपने आप को हमेशा अपने मतदाता के संपर्क में रहता हो,वो भी तब जब आपका चुनावी क्षेत्र इतना बड़ा हो.जब वर्तमान समय में जंहा सब कुछ प्रचार-प्रसार पर निर्भर हो, सोशल मीडिया के बिना चुनावी राजनीति को देखा न जाता हो वही चुपचाप बिना किसी प्रचार प्रसार के जनता के बीच खुद को रख कर कोई नेता कैसे अपने मतदाताओं के दिल पर अपनी छाप छोड़ता है.दिल की बात यहां करना जरूरी है की इन 49 सालों में मतदाताओं का दिमाग नहीं बदला, क्यूंकि ये वर्ग दिमाग के लिए प्रचलित है, और ये दिमाग वाला वर्ग दिल से आपके साथ हो तो ये सीखने का,शोध का विषय है.जंहा एक तरफ समाज में जाति का बोलबाला हो,जंहा लोगों का मन वक़्त बेवक्त बदल जाता हो वहां एक जगह मतदाता स्थिर हो. वही दूसरी तरफ आपको इतने बड़े क्षेत्र से इतने दिनों से जीतते रहने के बाद बुद्धिजीवी समाज का हर वर्ग आपको पहले से ज्यादा आपको वोट दे तो ये समाज के नेताओं और जो भविष्य में नेता बनने की चाह रखते है,उनके लिए ध्यान देने की बात है. आखिर क्यों इतने दिनों से जीतते रहने के बाद भी चुनाव होने से पहले ये चर्चा होती है कि चुनाव तो फलाना प्रत्याशी ही जीतेगा,आखिर ये संतुष्टि का भाव कैसे मतदाता को आता होगा. कहना आसान हो सकता है की वोटर बनाना है, जितना वोटर बनायेगा उतना आपको वोट मिलेगा अगर ये सही है तो सारण मे या अन्य जगह क्यों नहीं हुआ. सारण मे तो भावनात्मक बात भी थी. बड़े बड़े नेताओं को ऐसे नेताओं को समाज का रोल मॉडल बनाना होगा. ऐसे नेता हम जब कहते है,तो हम विशेष ध्यान आकृष्ट करते है कि कहा जाता है की मूर्ख लोगों को ठग सकते है लेकिन पढ़े लिखे लोगों को नहीं,यहां तो आपके मतदाता को समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का दर्जा मिला हुआ हो और वो आपको जीत दिलाते है यानी उनका भरोसा आपके काम,आपके व्यवहार पर है.
आप इस जीत को महज चुनावी जीत,पार्टी की जीत न मानकर समाज में आपकी स्वीकार्यता और जीत को जीत बनाये रखने की है. कहा जाता है कुछ पाना मुश्किल है लेकिन उसे बनाये रखना उससे भी ज्यादा मुश्किल. इस जीत को आने वाली पीढ़ी के लिए कर्मठ,काम के प्रति दृढ़ता, जीत के बाद भी खुद को सहज बनाए रखने की शैली और हमेशा मतदाताओं को खुद और खुद की पार्टी से ऊपर रखने की और इंगित करती है.
✒️नीलेश सिंह
पटना विश्वविद्यालय
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