दग़ाबाज़

दोस्तों के भेस में दुश्मन छिपे बैठे थे
गैरों की महफिल को हम अपना समझ बैठे  थे
हम उन पर एतबार कर बैठे खुद से भी ज्यादा, 
हमको रख कर भूखा वो मुँह में पान दबाए बैठे थे 
हम फूल बिछाये बैठे थे राहों में जिनके लिए 
मेरे रास्ते में वो लोग घात लगाए बैठे थे 
अपना कह कर पराया होना खलता है हमे 
वो तो पहले से ही मेहमान बनाये बैठे थे 
हम तैयार थे साथ चलने को जिसके 
छलने को वो हमको प्लान बनाए बैठे थे. 



✒️नीलेश सिंह
पटना विश्वविधालय

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