शब्द सखा

बड़ी कशमकश मे जी रहा हूँ मैं
थोड़ा जी रहा हूँ थोड़ा मर रहा हू मैं
सुना है बताने से दर्द पर मरहम लगते हैं
आज कल बेदर्द को अपना दर्द सुना रहा हू मैं
मालूम है तैरकर होगी दरिया पार मगर
रोज किनारों से किनारा हो रहा हू मैं
साथ लेकर सबको चलने की सोचता रहता मगर, 
आज खुद को खुद से अकेला पा रहा हू मैं
 दूसरों को हंसाता रहता हूं हमेशा मगर,
आज खुद को ही रुला रहा हू मैं
राज मेरे कुछ भी नहीं है इस जंहा मे मगर, 
आज खुद से ही जैसे कुछ छुपा रहा हू मैं 
ना सुनने की जिद होगी उनकी मेरे शब्दों को, 
एहसासों को कागज पर लिख कर मिटा रहा हू मैं 
पाने के लिए जिसे सब खो दिया हमने, 
आज उससे भी दूर होता जा रहा हू मैं 
बताता हू मैं खुद का हिस्सा जिसे, 
आज ये उन का ही किस्सा सुना रहा हू मैं l

                                                 नीलेश सिंह

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